॥दुपदी रमैणी॥
भरा दयाल बिषहर जरि जागा, गहगहान प्रेम बहु लगा ।
भया अनंद जीव भये उल्हासा, मिले राम मनि पूगी आसा ।
मास असाढ़ रबि धरनि जरावै, जरत जरत जल आइ बुझावै ।
रूति सुभाइ जिमीं सब जागी, अमृत धार होइ झर लागी ।
जिमीं माहि उठी हरियाई, बिरहनि पीव मिले जन जाई
।
मनिका मनि के भये उछाहा, कारनि कौन बिसारी नाहा ।
खेल तुम्हारा मरन भया मेरा ? चौरासी लख कीन्हां फेरा ?
सेवग संत जे होइ अनिआई, गुन अवगुन सब तुम्हि
समाई ?
अपने औगुन कहूँ न पारा ? इहै अभाग जे तुम्ह न
संभारा ?
दरबो नहीं काँई तुम्ह नाहा, तुम्ह बिछुरे मैं बहु
दुख चाहा ?
मेघ न बरिखै जांहि उदासा, तऊ न सारंग सागर आसा ?
जलहर मरौं ताहि नहीं भावै, कै मरि जाइ कै उहै
पियावै ।
मिलहु राम मनि पुरवहु आसा, तुम्ह बिछुरया मैं सकल
निरासा ।
मैं रनिरासी जब निध्य पाई, राम नाम जीव जाग्या जाई
।
नलिनीं कै ज्यूँ नीर अधारा, खिन बिछुरया थैं रवि
प्रजारा ।
राम बिना जीव बहुत दुख पावै, मन पतंग जगि अधिक जरावै
।
माघ मास रुति कवलि तुसारा, भयौ बसंत तब बाग संभारा
।
अपनै रंगि सब कोइ राता, मधुकर बार लेहि मैंमंता
।
बन कोकिला नाद गहगहाना, रुति बसंत सब कै मनि
माना ।
बिरहन्य रजनी जुग प्रति भइया, पिव पिव मिलें कलप टलि
गइया ।
आतमा चेति समझि जीव जाई, बाजी झूठ राम निधि पाई ?
भया दयाल निति बाजहिं बाजा, सहज राम नाम मन राजा ।
जरत जरत जल पाइया, सुख सागर कर मूल ।
गुर प्रसादि कबीर कहि, भागी संसै सूल ।
राम नाम जिन पाया सारा, अबिरथा झूठ सकल संसारा ।
हरि उतंग मैं जानि पतंगा, जंबकु केहरि कै ज्यूँ
संगा ।
क्यंचिति ह्नै सुपिनै निधि पाई, नहीं सोभा कौ धरी लुकाई
।
हिरदै न समाइ जांनियै नहीं पारा, लगै लोभ न और हंकारा ।
सुमिरत हूँ अपनै उनमाना, क्यंचित जोग राम मैं
जाना ।
मुखा साध का जानियै असाधा, क्यंचित जोग राम में
लाधा ।
कुबिज होई अमृत फल बंछ्या, पहुँचा तब मन पूगी
इंछ्या ।
नियर थे दूरि दूरि थैं नियरा, रामचरित न जानियै जियरा
।
सीत थैं अगिन फुनि होई, रबि थैं ससि ससि थैं रबि
सोई ।
सीत थैं अगनि परजई, थल थैं निधि निधि थैं थल
करई ।
वज्र थैं तिण खिण भीतरि होई, तिण थैं कुलिस करे फुनि
सोई ।
गिरबर छार छार गिरि होई, अविगति गति जानै नहीं
कोई ।
जिहि दुरमति डोल्यौ संसारा, परे असूझि बार नहिं पारा
।
बिख अमृत एक करि लीन्हां, जिनि चीन्हा सुख तिह कूँ
हरि दीन्हा ।
सुख दुख जिनि चीन्हा नहीं जाना, ग्रासे काल सोग रुति
माना ।
होइ पतंग दीपक में परई, झूठै स्वादि लागि जीव
जरई ।
कर गहि दीपक परहि जू कूपा, बहु अचिरज हम देखि अनूपा
।
ग्यानहीन ओछी मति बाधा, मुखा साध करतूति असाधा ।
दरसन समि कछू साध न होई, गुर समान पूजिये सिध सोई
।
भेष कहा जे बुधि बिगूढ़ा, बिन परचे जग बूड़नि बूड़ा
।
जदपि रबि कटिये सुर आटी, झूठे रबि लीन्हा सुर
चाही ।
कबहूँ हुतासन होइ जरावे, कबहुँ अखंड धार बरिषावै
।
कबहूँ सीत काल करि राजा, तिहूँ प्रकार बहुत दुख
देखा ।
ताकूँ सेवि मूढ सुख पावै, दौरे लाभ कूँ मूल गवावै
।
अछित राज दिने दिन होई, दिवस सिराइ जनम गये खोई
।
मृत काल किनहूँ नहीं देखा, माया मोह धन अगम अलेखा ।
झूठै झूठ रह्यौ उरझाई, सांचा अलख जग लख्या न
जाई ।
साचै नियरै झूठै दूरी, बिष कूँ कहै सजीवन मूरी
।
कथ्यौ न जाइ नियरै अरु दूरी, सकल अतीत रह्या घट पूरी
।
जहाँ देखौ तहाँ राम समाना, तुम्ह बिन ठौर और नहिं
आना ।
जदपि रह्या सकल घट पूरी, भाव बिना अभिअंतरि दूरी
।
लोभ पाप दोऊ जरै निरासा, झूठै झूठि लागि रही आसा
।
जहुवाँ ह्नै निज प्रगट बजावा, सुख संतोष तहाँ हम पावा
।
नित उठि जस कीन्ह परकासा, पावक रहै जैसे काष्ठ
निवासा?
बिना जुगति कैसे मथिया जाई, काष्ठै पावक रह्या समाई?
कष्टै कष्ट अग्नि परजरई, जारै दार अग्नि समि करई
।
ज्यूँ राम कहै ते राम होई, दुख कलेस घालै सब खोई ।
जन्म के कलिबिष जांहि बिलाई, भरम करम का कछु न बसाई ।
भरम करम दोऊ बरतै लोई, इनका चरित न जानै कोई ।
इन दोऊ संसार भुलावा, इनके लागैं ग्यान गंवावा
।
इनकौ भरम पै सोई बिचारी, सदा अनंद लै लीन मुरारी
।
ग्यान दृष्टि निज पेखे जोई, इनका चरित जानै पै सोई ।
ज्यूँ रजनी रज देखत अंधियारी, डसे भुवंगम बिन उजियारी
। रज = रस्सी
तारे अगिनत गुनहि अपारा, तऊ कछू नहीं होत अधारा ।
झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिना भुवंगम डसी दुनियाई
।
झूठै झूठ लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग
पियासा ।
इक त्रिषावंत दह दिसि फिर आवै, झूठै लागा नीर न पावै ।
इक त्रिषावंत अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई ।
नीझर नीर जांनि परहरिया, करम के बांधे लालच करिया
।
कहै मोर कछु आहि न वाहीं, धरम करम दोऊ मति गवाई ।
धरम करम दोउ मति परहरिया, झूठे नांऊ साच ले धरिया
।
रजनी गत भई रबि परकासा, धरम करम धूँ केर बिनासा
।
रवि प्रकास तारे गुन खींना, आचार ब्यौहार सब भये
मलीना ।
बिष के दाधे बिष नहीं भावै, जरत जरत सुखसागर पावै ।
अनिल झूठ दिन धावै आसा, अंध दुरगंध सहै दुख
त्रासा ।
इक त्रिषावंत दूसरे रबि तपई, दह दिसि ज्वाला चहुंदिसि
जरई ।
करि सनमुखि जब ग्यान बिचारी, सनमुखि परिया अगनि
मंझारी ।
गछत गछत तब आगै आवा, बित उनमान ढिबुआ इक पावा
।
सीतल सरीर तन रह्या समाई, तहाद्द छाड़ि कत दाझै जाई
।
यूं मन बारुनि भया हमारा, दाधा दुख कलेस संसारा ।
जरत फिरे चौरासी लेखा, सुख कर मूल कितहूं नहीं
देखा ।
जाके छाड़े भये अनाथा, भूलि परे नहीं पावै पंथा
।
अछै अभिअंतरि नियरै दूरी, बिन चीन्ह्या क्यूद्द
पाइये मूरी ।
जा दिन हंस बहुत दुख पावा, जरत जरत गुरि राम मिलावा
।
मिल्या राम रह्या सहजि समाई, खिन बिछुर्या जीव उरझै
जाई ।
जा मिलियां तैं कीजै बधाई, परमानंद भेटिये रैनि दिन
गाई ।
सखी सहेली लीन्ह बुलाई, रूति परमानंद भेटिये जाई
।
चली सखी जहुंवा निज रामा, भये उछाह छाड़े सब कामा ।
जानूं की मोरै सरस बसंता, मैं बलि जाऊँ तोरि
भगवंता ।
भगति हेत गावै लै लीनां, ज्यूं निनाद कोकिला
कीन्हा ।
बाजै संख सबद धुनि बैनां, तन मन चित हरि गोविंद
लीना ।
चल अचल पांइन पंगुरनी, मधुकरि ज्यूं लेहि अघरनी
।
सावज सींह रहे सब माँची, चंद अरु सूर रहै रथ
खाँची ।
गण गंध्रप सुनि जीवै देवा, आरति करि करि बिनवै सेवा
।
बासि गयंद्र ब्रह्मा करै आसा, हम क्यूं चित दुर्लभ राम
दासा ।
भगति हेतु राम गुन गावै, सुर नर मुनि दुर्लभ पद
पावै ।
पुनिम बिमल ससि मात बसंता, दरसन जोति मिले भगवंता ।
चंदन बिलनी बिरहिनि धारा, यूं पूजिये प्रानपति राम
पियारा ।
भाव भगति पूजा अरु पाती, आतमराम मिले बहुत भाँती
।
राम राम राम रुचि मानै, सदा अनंद राम ल्यौ जानै
।
पाया सुख सागर कर मूला, जो सुख नहीं कहूँ समतूला
।
सुख समाधि सुख भया हमारा, मिल्या न बेगर होइ ।
जिहि लाधा सो जांनिहै, राम कबीर और न जानै कोइ
।
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