रविवार, मार्च 28, 2010

गारुड काह कराय


                               रमैनी 28

अस जोलहा को मर्म न जाना, जिन्ह जग आनि पसारिन ताना ।
धरती अकास दुइ गाङ खोदाया, चाँद सूर्य दुइ नरी बनाया ।
सहस्र तार ले पूरन पूरी, अजहूँ बिनै कठिन है दूरी ।
कहहिं कबीर कर्म ते जोरी, सूत कुसूत बिनै भल कोरी ।
                        
                          रमैनी 29

बज्रहु ते तृन छिन में होई, तृण ते बज्र करै पुनि सोई ।
निझरू नीरू जानि परिहरिया, कर्म के बांधल लालच करिया ।
कर्म धर्म मति बुधि परिहरिया, झूठा नाम साँच लै धरिया ।
रज गति त्रिबिध कीन्ह परकासा, कर्म धर्म बुधि केर विनासा ।
रबि के उदय तारा भए छीना, चर बीचर दोनों में लीना ।
विष के खाये विष नहिं जावै, गारुड सो जो मरत जियावै ।

अलख जे लागी पलक में, पलकहिं में डसि जाय ।
विषधर मंत्र न मानहीं, तो गारुड काह कराय ।

                           रमैनी 30

औ भूले षट दर्शन भाई, पाषंड भेष रहा लपटाई ।
जीव सीव का आहि न सौना, चारिउ बेद चतुर गुन मौना ।
जैन धर्म का मर्म न जाना, पाती तोरि देव घर आना ।
दवना मरुबा चंपा फूला, मानहु जीव कोटि समतूला ।
औ पृथवी के रोम उचारे, देखत जन्म आपनो हारे ।
मनमथ बिंदु करै असरारा, कलपै बिंदु खसै नहिं द्वारा ।
ताकर हाल होय अदकूचा, छौ दरसन में जैन बिगूचा ।

ग्यान अमर पद बाहरे, नियरे ते है दूरि ।
जो जानै तेहि निकट है, (नातो) रहयो सकल घट पूरि ।

                              रमैनी 31

स्मृति आहि गुनन के चीन्हा, पाप पुन्य को मारग कीन्हा ।
स्मृति बेद पढे असरारा, पाखंड रूप करै हंकारा ।
पढें बेद अरु करै बडाई, संसय गाँठि अजहुँ नहिं जाई ।
पढि कै सास्त्र जीव बध करई, मूड काटि अगमन कै धरई ।

कहहिं कबीर ई पाखंड, बहुतक जीव सताए ।
अनुभव भाव न दरसई, जियत न आपु लखाय ।

कहहिं कबीर पुकारि


रमैनी 24

चन्द्र चकोर अस बात जनाई, मानुष बुद्धि दीन्ह पलटाई ।
चारि अवस्था सपनेहु कहई, झूठो फूरो जानत रहई?
मिथ्या बात न जानै कोई, यहि बिधि सब ही गेल बिगोई ।
आगे दे दे सबन गंवाया, मानुष बुधि सपनेहु नहिं आया ।
चौंतिस अक्षर से निकलै जोई, पाप पुन्य जानेगा सोई?

सोइ कहते सोइ होहुगे, निकरि न बाहर आव ।
होइ जुग ठाढ़े कहत हौं, ते धोखे न जन्म गँवाव ।

                                रमैनी 25

चौंतिस अक्षर का यही बिसेखा, सहस्रों नाम याहि में देखा ।
भूलि भटकि नर फिर घट आया, हो अजान फिर सबहि गँवाया ।
खोजहिं ब्रह्मा विस्नु सिव सक्ती, अमित लोक खोजहिं बहु भक्ती ।
खोजहि गन गंधर्ब मुनि देवा, अनँत लोक खोजहि बहु भेवा ।

जती सती सब खोजहीं, मनहि न मानैं हारि ।
बड बड जीव न बाचहीं, कहहिं कबीर पुकारि ।

                            रमैनी 26

आपुहि कर्ता भये कुलाला, बहु विधि बासन गढे कुम्हारा ।
बिधि ने सबै कीन्ह एक ठाऊँ, बहुत यतन कै बनयो नाऊँ ।
जठर अग्नि में दीन्ह प्रजाली, तामें आपु भये प्रतिपाली ।
बहुत जतन कै बाहर आया, तब सिव सक्ती नाम धराया ।
घर का सुत जो होय अयाना, ताके संग न जाहु सयाना?
साँची बात कहौं मैं अपनी, भयो दिवाना और कि सपनी?
गुप्त प्रगट है एकै दूधा, काको कहिये ब्राह्मण शुद्रा ।
झूठ गर्भ भूलो मति कोई, हिन्दू तुर्क झूठ कुल दोई ।

जिन यह चित्र बनाइया, साँचा सूतरधार ।
कहहिं कबीर ते जन भले, जो चित्रहिं लेहि निहार ।

                          रमैनी 27

ब्रह्मा को दीन्हो ब्रह्मंडा, सप्त दीप पुहुमी नव खंडा ।
सत्य सत्य कहि विष्णु दृढाई, तीन लोक में राखिनि जाई ।
लिंग रूप तब शंकर कीन्हा, धरती कीलि रसातल दीन्हा?
तब अष्टंगी रचो कुमारी, तीनि लोक मोहा सब झारी ।
दुतिया नाम पार्वती भयऊ, तप करते शंकर को दयऊ ।
एकै पुरुष एकै है नारी, ताते रची खानि भौ चारी?
सर्बन बर्बन देव औ दासा, रज सत तम गुण धरति अकासा ।

एक अंड ओंकार ते, सभ जग भया पसार ।
कहहिं कबीर सब नारी राम की, अविचल पुरुष भतार ।

तब बचिहौ जब रामहि जानी


                              रमैनी 21

बहुत दुख दुख ही की खानी, तब बचिहौ जब रामहि जानी ।
रामहि जानि युक्ति से चलही, युक्तिहि ते फंदा नहिं परहीं?
जुक्तिहि जुक्ति चला संसारा, निश्चय कहा न मानु हमारा ।
कनक कामिनी घोर पटोरा, संपति बहुत रहहि दिन थोरा ।
थोरी संपति गौ बौराई, धर्मराय की खबरि न पाई ।
देषि त्रास मुख गौ कुम्हिलाई, अमृत धोखै गौ विष खाई ।

मैं सिरजौं मैं मारता, मैं जारौं मैं खाउँ ।
जल और थल में मैं रमा, मोर निरंजन नांउ ।

                              रमैनी 22

अलख निरंजन लखै न कोई, जेहि बंधे बंधा सब लोई?
जेहि झूठे सब बांधु अयाना, झूठी बात सांच कै जाना?
धंधा बंधा कीन्ह व्यौहारा, करम विवर्जित बसै नियारा ।
षट आश्रम षट दरसन कीन्हा, षट रस वस्तु खोट सब चीन्हा ।
चार वृक्ष छब साख बखानी, विद्या अगनित गनै न जानी ।
औरौ आगम करै बिचारा, ते नहिं सूझे वार न पारा ।
जप तीरथ ब्रत कीजे पूजा, दान पुन्य कीजे बहु दूजा ।

मन्दिर तो है नेह का, मति कोइ पैठै धाय ।
जो कोइ पैठे धाय के, बिन सिर सेंती जाय ।

                            रमैनी 23

अल्प दुख सुख आदिउ अन्ता, मन भुलान मैगर मैं मन्ता ।
सुख बिसराय मुक्ति कहँ पावै, परिहरि साँच झूठ निज धावै?
अनल ज्योति डाहे एक संगा, नैन नेह जस जरै पतंगा?
करहु विचार जो सब दुख जाई, परिहरि झूठा केरि सगाई ।
लालच लागी जन्म सिराई, जरा मरन नियरायल आई ।

भर्म का बाँधा ई जगत, येहि बिधि आवे जाय ।
मानुष जीवन पाय के, नर काहे जहँडाय ।


एकै पंडित सबै पढाये


                               रमैनी 17

जस जिव आपु मिलै अस कोई, बहुत धर्म सुख हृदया होई ।
जासों बात राम की कही, प्रीति ना काहू सों निर्वही ।
एकै भाव सकल जग देखी, बाहर परे सो होय बिबेकी ।
विषय मोह के फंद छोडाई, जहाँ जाय तहँ काटु कसाई ।
अहै कसाई छूरी हाथा, कैसेहु आवै काटौ माथा?
मानुस बडे बडे हो आए, एकै पंडित सबै पढाये ।
पढना पढौ धरौ जनि गोई, नहिं तो निश्चय जाहु बिगोई ।

सुमिरन करहु राम के, छाडहु दुख की आस ।
तर ऊपर धर चापि हैं, जस कोल्हु कोट पचास ।

                        रमैनी 18

अदभुद पंथ बरनि नहिं जाई, भूले राम भूलि दुनियाई ।
जो चेतहु तो चेत रे भाई, नहि तो जीवहि जम ले जाई?
सब्द न मान कथै बिग्याना, ताते यम दीन्हो है थाना?
संसय सावज बसै सरीरा, तिन्ह खायो अनबेधा हीरा ।

संसय सावज सरीर में, संगहि खेलै जुआरि ।
ऐसा घायल बापुरा, जीवन मारै झारि ।

                               रमैनी 19

अनहद अनुभव को करि आसा, देखहु यह विपरीत तमासा?
इहै तमासा देखहु भाई, जहवाँ सून्य तहाँ चलि जाई?
सून्यहि बासा सून्यहि गयऊ, हाथा छोडि बे हाथा भयऊ ।
संसय सावज सब संसारा, काल अहेरी साँझ सकारा?

सुमिरन करहु राम का, काल गहे है केस ।
ना जाने कब मारि है, क्या घर क्या परदेस ।

                                रमैनी 20

अब कहु राम नाम अविनासी, हरि छोडि जियरा कतहुँ न जासी ।
जहाँ जाहु तहँ होहु पतंगा, अब जनि जरहु समुझि विष संगा ।
राम नाम लौ लायसु लीन्हा, भृंगी कीट समुझि मन दीना ।
भौ अस गरुवा दुष की भारी, करु जिव जतन सु देखु विचारी ।
मन के बात है लहरि विकारा, तब नहिं सूझै वार न पारा ।

इच्छा के भवसागरे, वोहित राम अधार ।
कहि कबीर हरि सरण गहु, गौबछ खुर बिस्तार ।

लाभ ते हानि होय रे भाई


                           रमैनी 13

नहीं प्रतीत जो यह संसारा, द्रव्य के चोट कठिन कै मारा ।
सो तो सेखै जाइ लुकाई, काहु के प्रतीति न आई ।
चलै लोग सब मूल गंवाई, जम की बाढि काटि नहिं जाई ।
आजु काज पर काल अकाजा, चले लादि दिग अंतर राजा ।
सहज विचारत मूल गंवाई, लाभ ते हानि होय रे भाई?
ओछी मती चन्द्र गो अथई, त्रिकुटी संगम स्वामी बसई ।
तबही विष्णु कहा समुझाई, मैथुन अस्ट तुम जीतहु जाई?
तब सनकादिक तत्व विचारा, ज्यों धन पावहि रंक अपारा ।
भो मर्याद बहुत सुख लागा, एहि लेखे सब संसय भागा ।
देखत उत्पति लागु न बारा, एक मरै एक करै बिचारा ।
मुए गए की काहु न कही, झूठी आस लागि जग रही?

जरत जरत तें बाचहू, काहे न करहु गोहार ।
विष विषया कै खायहु, रात दिवस मिल झार ।

                            रमैनी 14

बड सो पापी आहि गुमानी, पाखंड रूप छलेउ नर जानी ।
बावन रूप छलेउ बलि राजा, ब्राह्मन कीन्ह कौन को काजा ।
ब्राह्मन ही सब कीन्हा चोरी, ब्राह्मन ही की लागल खोरी ।
ब्राह्मन कीन्हों वेद पुराना, कैसेहु के मोहि मानुष जाना ।
एक से ब्रह्मै पंथ चलाया, एक से हंस गोपालहि गाया ।
एक से शम्भू पथ चलाया, एक से भूत प्रेत मन लाया ।
एक से पूजा जैन बिचारा, एक से निहुरि निमाज गुजारा ।
कोई काम का हटा न माना, झूठा खसम कबीर न जाना?
तन मन भजि रहु मोरे भक्ता, सत्य कबीर सत्य है वक्ता ।
आपहु देव आपु ही पाती, आपुहि कुल आपुहि है जाती?
सर्व भूत संसार निवासी, आपुहि खसम आपु सुखरासी ।
कहते मोहि भए युग चारी, काके आगे कहौं पुकारी?

साँचहि कोई न मानई, झूठहि के संग जाए ।
झूठहि झूठा मिलि रहा, अहमक खेहा खाए ।

                             रमैनी 15

उनही बदरिया परि गै साँझा, अगुवा भूला बन खंड माँझा ।
पिया अंते धन अंते रहई, चौपरि कामरि माथे गहई ।

फुलवा भार न लै सकै, कहै सखिन सो रोए ।
ज्यों ज्यों भीजै कामरी, त्यों त्यों भारी होए ।

                        रमैनी 16

चलत चलत अति चरण पिराना, हारि परै तहँ अति खिसियाना?
गण गंधर्व मुनि अंत न पाया, हरि अलोप जग धंधे लाया ।
गहनी बंधन बाँध न सूझा, थाकि परे तहाँ कछू न बूझा ।
भूलि परे जिए अधिक डेराई, रजनी अंध कूप हो आई ।
माया मोह वहां भरपूरी, दादुर दामिन पवनहि पूरी ।
बरसै तपै अखंडित धारा, रैन भयावनि कछु न अधारा ।

सभै लोग जहँडाइया, अंधा सबै भुलान ।
कहा कोइ नहिं मानहीं, एकै माहिं समान ।

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।