पवन
नहीं पानी नहीं, नहि धरनी आकास।
तहाँ
कबीरा संतजन, साहिब पास खवास॥
अगुवानी
तो आइया, ज्ञान विचार विवेक।
पीछै
हरि भी आयेंगे, सारे सौंज समेत॥
पारब्रह्म
के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे
की सोभा नही, देखै ही परमान॥
सुरज
समाना चांद में, दोउ किया घर एक।
मन का
चेता तब भया, पुरब जनम का लेख॥
पिंजर
प्रेम प्रकासिया, अंतर भया उजास।
सुख
करि सूती महल में, बानी फ़ूटी वास॥
आया था
संसार में, देखन को बहुरूप।
कहै
कबीरा संत हो, परि गया नजर अनूप॥
पाया
था सो गहि रहा, रसना लागी स्वाद।
रतन
निराला पाइया, जगत ठठोला बाद॥
हिम से
पानी ह्वै गया, पानी हुआ आप।
जो
पहिले था सो भया, प्रगटा आपहि आप॥
कुछ
करनी कुछ करम गति, कुछ पुरबले लेख।
देखो
भाग कबीर का, लेख से भया अलेख॥
जब मैं
था तब गुरू नहीं, अब गुरू हैं मैं नाहिं।
कबीर
नगरी एक में, दो राजा न समांहि॥
मैं
जाना मैं और था, मैं तजि ह्वै गय सोय।
मैं
तैं दोऊ मिटि गये, रहे कहन को दोय॥
अगम
अगोचर गम नहीं, जहाँ झिलमिली जोत।
तहाँ
कबीरा रमि रहा, पाप पुन्न नहि छोत॥
कबीर
तेज अनंत का, मानो सूरज सैन।
पति
संग जागी सुन्दरी, कौतुक देखा नैन॥
कबीर
देखा एक अंग, महिमा कही न जाय।
तेजपुंज
परसा धनी, नैनों रहा समाय॥
कबीर कमल
प्रकासिया, ऊगा निरमल सूर।
रैन
अंधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर॥
कबीर
मन मधुकर भया, करै निरन्तर बास।
कमल
खिला है नीर बिन, निरखै कोइ निज दास॥
कबीर
मोतिन की लङी, हीरों का परकास।
चांद
सूर की गम नही, दरसन पाया दास॥
कबीर
दिल दरिया मिला, पाया फ़ल समरत्थ।
सायर मांहि
ढिंढोरता, हीरा चढ़ि गया हत्थ॥
कबीर
जब हम गावते, तब जाना गुरू नांहि।
अब
गुरू दिल में देखिया, गावन को कछु नांहि॥
कबीर
दिल दरिया मिला, बैठा दरगह आय।
जीव
ब्रह्म मेला भया, अब कछु कहा न जाय॥
कबीर
कंचन भासिया, ब्रह्म वास जहाँ होय।
मन भौंरा तहाँ लुब्धिया, जानेगा जन कोय॥
3 टिप्पणियां:
कबीर जी के दोहे के अर्थ
कुछ करनी कुछ करम गति दोहे के अर्थ
मनुष्य जब जन्म लेता है अपने साथ प्रारब्ध लेकर आता है।यह प्रारब्ध ही पूर्व जन्म का लेख है। इस लेख रूपी कर्ज को इस जन्म में आकर चुकाना होता है। यदि आपकी करनी और कर्म ठीक रहे तो प्रारब्ध रूपी कर्ज उतर जाता है।और आपका कर्ज का बहीखाता जिसे संत कबीर ने लेख कहा है, वह पन्ना कोरा हो जाता है। इसी कारण कबीर कहते है मेरा भाग्य देखिए मैं लेख से अलेख हो गया हूं।
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