शनिवार, नवंबर 26, 2011

निगुरा को अंग

निगुरा को अंग

जो निगुरा सुमिरन करै, दिन में सौ सौ बार।
नगर नायका सत करै, जरै कौन की लार॥

गुरू बिन अहनिस नाम ले, नही संत का भाव।
कहै कबीर ता दास का, पङै न पूरा दाव॥

गुरू बिन माला फ़ेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन सब निष्फ़ल गया, पूछौ वेद पुरान॥

गरभ योगेसर गुरू बिना, लागा हरि की सेव।
कहैं कबीर बैकुंठ में, फ़ेर दिया सुकदेव॥

जनक विदेही गुरू किया, लागा गुरू की सेव।
कहैं कबीर बैकुंठ में, उलटि मिला सुकदेव॥

चौसठ दीवा जोय के, चौदह चंदा मांहि।
तिहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरू नांहि॥

निसि अंधियारी कारनै, चौरासी लख चंद।
गुरू बिन येते उदय ह्वै, तहूं सुद्रिष्टिहि मंद॥

दारुक में पावक बसै, घुनका घर किय जाय।
हरि संग विमुख नर को, काल ग्रास ही खाय॥

पूरे को पूरा मिला, पूरा पङसी दाव।
निगुरू का कृवट चलै, जब तब करै कुदाव॥

जो कामिनी परदे रहै, सुनै न गुरूमुख बात।
सो तो होगी कूकरी, फ़िरै उघारै गात॥

कबीर गुरू की भक्ति बिनु, नारि कूकरी होय।
गली गली भूंकत फ़िरै, टूंक न डारै कोय॥

कबीर गुरू की भक्ति बिनु, राजा रासभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै सोय।

गगन मंडल के बीच में, तहवाँ झलकै नूर।

निगुर महल न पावई, पहुँचेगा गुरू पूर॥

गुरू शिष्य हेरा को अंग 3

हिरदे ज्ञान न ऊपजे, मन परतीत न होय।
ताको सदगुरू कहा करै, घनघसि कुल्हरा न होय॥

घनघसिया जोई मिले, घन घसि काढ़े धार।
मूरख ते पंडित किया, करत न लागी वार॥

सिष पूजै गुरू आपना, गुरू पूजे सब साध।
कहै कबीर गुरू सीष का, मत है अगम अगाध॥

गुरू सोज ले सीष का, साधु संत को देत।
कहै कबीरा सौंज से, लागे हरि से हेत॥

सिष किरपन गुरू स्वारथी, मिले योग यह आय।
कीच कीच कै दाग को, कैसे सकै छुङाय॥

देस दिसन्तर मैं फ़िरूं, मानुष बङा सुकाल।
जा देखै सुख ऊपजै, वाका पङा दुकाल॥

सत को ढूंढ़त में फ़िरूं, सतिया मिलै न कोय।
जब सत कूं सतिया मिले, विष तजि अमृत होय॥

स्वामी सेवक होय के, मन ही में मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के मांय॥

धन धन सिष की सुरति कूं, सतगुरू लिये समाय।
अन्तर चितवन करत है, तुरतहि ले पहुंचाय॥

गुरू विचारा क्या करै, बांस न ईंधन होय।
अमृत सींचै बहुत रे, बूंद रही नहि कोय॥

गुरू भया नहि सिष भया, हिरदे कपट न जाव।
आलो पालो दुख सहै, चढ़ि पाथर की नाव॥

चच्छु होय तो देखिये, जुक्ती जानै सोय।
दो अंधे को नाचनो, कहो काहि पर मोय॥

गुरू कीजै जानि कै, पानी पीजै छानि।
बिना विचारै गुरू करै, पङै चौरासी खानि॥

गुरू तो ऐसा चाहिये, सिष सों कछू न लेय।
सिष तो ऐसा चाहिये, गुरू को सब कुछ देय॥


गुरू शिष्य हेरा को अंग 2

प्रेमी ढ़ूंढ़त मैं फ़िरूं, प्रेमी मिले न कोय।
प्रेमी सों प्रेमी मिले, विष से अमृत होय॥

जिन ढ़ूंढ़ा तिन पाइया, गहिरै पानी पैठ।
मैं बपुरा बूढ़न डरा, रहा किनारे बैठ॥

सदगुरू हमसों रीझि के, एक दिया उपदेस।
भौसागर में बूङता, कर गहि काढ़े केस॥

आदि अंत अब को नहीं, निज बाने का दास।
सब संतन मिलि यौं रमै, ज्यौं पुहुपन में बास॥

पुहुपन केरी बास ज्यौं, व्यापि रहा सब ठांहि।
बाहर कबहू न पाइये, पावै संतों मांहि॥

बिरछा पूछै बीज सों, कौन तुम्हारी जात।
बीज कहै ता वृच्छ, कैसे भै फ़ल पात॥

बिरछा पूछे बीज को, बीज वृच्छ के मांहि।
जीव जो ढ़ूंढ़े ब्रह्म को, ब्रह्म जीव के मांहि॥

डाल जो ढ़ूंढ़े मूल को, मूल डाल के पांहि।
आप आपको सब चले, मिले मूल सों नांहि॥

डाल भई है मूल ते, मूल डाल के मांहि।
सबहि पङे जब भ्रम में, मूल डाल कछु नांहि॥

मूल कबीरा गहि चढ़ै, फ़ल खाये भरि पेट।
चौरासी की भय नहीं, ज्यौं चाहे त्यौं लेट॥

आदि हती सब आपमें, सकल हती ता मांहि।
ज्यौं तरुवर के बीज में, डार पात फ़ल छांहि॥

हेरत हेरत हेरिया, रहा कबीर हिराय।
बूंद समानी समुंद में, सो कित हेरी जाय॥

हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराय।
समुंद समाना बूंद में, सो कित हेरा जाय॥

कबीर वैद बुलाइया, जो भावै सो लेह।
जिहि जिहि औषध गुरू मिले, सो सो औषध देह॥

परगट कहूं तो मारिया, परदा लखै न कोय।
सहना छिपा पयाल में
, को कहि बैरी होय॥

जैसे सती पिय संग जरै, आसा सबकी त्याग।
सुघर कूर सोचै नही, सिख पतिवर्त सुहाग॥

सरवस सीस चढ़ाइये, तन कृत सेवा सार।
भूख प्यास सहे ताङना, गुरू के सुरति निहार॥

गुरू को दोष रती नही, सीष न सोधे आप।
सीष न छाङै मनमता, गुरूहि दोष का पाप॥

जैसी सेवा सिष करै, तस फ़ल प्रापत होय।
जो बोवै सो लोवही, कहैं कबीर बिलोय॥



गुरू शिष्य हेरा को अंग

गुरू शिष्य हेरा को अंग

ऐसा कोई ना मिला, हमको दे उपदेस।
भौसागर में डूबते, कर गहि काढ़े केस॥

ऐसा कोई ना मिला, घर दे अपन जराय।
पाँचौ लङके पटकि के, रहै नाम लौ लाय॥

ऐसा कोई ना मिला, जासों कहूं दुख रोय।
जासों कहिये भेद को, सो फ़िर वैरी होय॥

ऐसा कोई ना मिला, सब विधि देय बताय।
सुन्न मंडल में पुरुष है, ताहि रहूं लौ लाय॥

ऐसा कोई ना मिला, समझै सैन सुजान।
ढोल दमामा ना सुनै, सुरति बिहूना  कान॥

ऐसा कोई ना मिला, समझै सैन सुजान।
अपना करि किरपा करै, लो उतारि मैदान॥

ऐसा कोई ना मिला, जासो कहूं निसंक।
जासों हिरदा की कहूं, सो फ़िर मांडै कंक॥

ऐसा कोई ना मिला, जलती जोति बुझाय।
कथा सुनावै नाम की, तन मन रहै समाय॥

ऐसा कोई ना मिला, टारै मन का रोस।
जा पैडे साधु चले, चलि न सकै इक कोस॥

ऐसा कोई ना मिला, सब्द देऊं बतलाय।
अक्षर और निहअक्षरा, तामें रहै समाय॥

हम घर जारा आपना, लूका लीन्हा हाथ।
वाहू का घर फ़ूंक दूं, चलै हमारे साथ॥

हम देखत जग जात है, जग देखत हम जांहि।
ऐसा कोई ना मिला, पकङि छुङावै बांहि॥

सरपहि दूध पियाइये, सोई विष ह्वै जाय।
ऐसा कोई ना मिला, आपैहि विष खाय॥

तीन सनेही बहु मिले, चौथा मिला न कोय।
सबहि पियारे राम के, बैठे परबस होय।

जैसा ढ़ूंढ़त मैं फ़िरूं, तैसा मिला न कोय।
ततवेता तिरगुन रहित, निरगुन सो रत होय॥

सारा सूरा बहु मिले, घायल मिला न कोय।
घायल को घायल मिले, राम भक्ति दृढ़ होय॥

माया डोलै मोहती, बोले कङुवा बैन।

कोई घायल ना मिला, सांई हिरदा सैन॥

गुरू पारख को अंग 3

गुरू नाम है गम्य का, सीष सीख ले सोय।
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरू सीष नहि कोय॥

गु अंधियारी जानिये, रू कहिये परकास।
मिटे अज्ञान तम ज्ञान ते, गुरू नाम है तास॥

भेरैं चढ़िया झांझरै, भौसागर के मांहि।
जो छांङै तो बाचि है, नातर बूङै मांहि॥

जाका गुरू है गीरही, गिरही चेला होय।
कीच कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय॥

गुरुवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
राम नाम धन बेचि के, करै सीष की आस॥

गुरुवा तो घर घर फ़िरे, दीक्षा हमरी लेह।
कै बूङौ कै ऊबरौ, टका पर्दनी देहु॥

घर में घर दिखलाय दे, सो गुरू चतुर सुजान।
पांच सब्द धुनकार धुन, बाजै सब्द निसान॥

छिपा रँगे सुरंग रँग, नीरस रस करि लेय।
ऐसा गुरू पै जो मिलै, सीष मोक्ष पुनि देय॥

मैं उपकारी ठेठ का, सदगुरू दिया सुहाग।
दिल दरपन दिखलाय के, दूर किया सब दाग॥

ऐसा कोई ना मिला, जासों रहिये लाग।
सब जग जलता देखिया, अपनी अपनी आग॥

ऐसे तो सदगुरू मिले, जिनसों रहिये लाग।
सबही जग सीतल भया, मिटी आपनी आग॥

यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान॥

गुरू बतावै साध को, साध कहै गुरू पूज।
अरस परस के खेल में, भई अगम की सूझ॥

नादी बिंदी बहु मिले, करत कलेजे छेद।
तख्त तले का ना मिला, जासों पूछूं भेद॥

तख्त तले की सो कहै, तख्त तले का होय।
मांझ महल की को कहै, पङदा गाढ़ा सोय॥

मांझ महल की गुरू कहै, देखा जिन घर बार।
कुंजी दीन्ही हाथ कर, पङदा दिया उघार॥

वस्तु कहीं ढ़ूंढ़ै कहीं, किहि विधि आवै हाथ।
कहैं कबीर तब पाइये, भेदी लीजै साथ॥

भेदी लीया साथ करि, दीन्हा वस्तु लखाय।
कोटि जनम का पंथ था, पल में पहुँचा जाय॥

घट का परदा खोलि करि, सनमुख ले दीदार।
बाल सनेही सांइया, आदि अंत का यार॥

गुरू मिला तब जानिये, मिटे मोह तन ताप।
हरष सोक व्यापै नही, तब गुरू आपै आप॥

सिष साखा बहुते किया, सतगुरू किया न मीत।
चाले थे सतलोक को, बीचहि अटका चीत।

बंधे को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुङाय॥


गुरू बेचारा क्या करै, हिरदा भया कठोर।
नौ नेजा पानी चढ़ा, पथर न भीजी कोर॥

गुरू बेचारा क्या करै, सब्द न लागा अंग।
कहै कबीर मैली गजी, कैसे लागै रंग॥

गुरू है पूरा सिष है सूरा, बाग मोरि रन पैठ।
सत सुकृत को चीन्हि के, एक तख्त चढ़ि बैठ॥

कहता हूँ कहि जात हूं, देता हूं हेला।
गुरू की करनी गुरू जानै, चेला की चेला॥

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।