सहज के
द्वारा सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर निरंजन प्रसन्न होकर अहंकार से भर गया
और
मानसरोवर चला आया । फ़िर जब उसने सुन्दर कामिनी ‘अष्टांगी
कन्या’ को आते हुये देखा, तो उसे अति
प्रसन्नता हुयी ।
अष्टांगी
का अनुपम सौंदर्य देखकर निरंजन मुग्ध हो गया उसकी सुन्दरता की कला का अन्त नहीं था
। यह देखकर काल-निरंजन बहुत व्याकुल हो गया ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, काल-निरंजन की
क्रूरता सुनो वह अष्टांगी कन्या को ही निगल गया । जब अन्यायी काल-निरंजन अष्टांगी
का ही आहार करने लगा तब उस कन्या को काल-निरंजन के प्रति बहुत आश्चर्य हुआ ।
जब वह
उसे निगल रहा था तो अष्टांगी ने सत्यपुरुष को ध्यान करके पुकारा कि काल-निरंजन ने
मेरा आहार कर लिया है ।
अष्टांगी
की पुकार सुनकर सत्यपुरुष ने सोचा कि यह काल-निरंजन तो बहुत क्रूर और अन्यायी है ।
इस कन्या की तरह ही पहले कूर्म ने ध्यान करके मुझे पुकारा था कि काल-निरंजन ने
मेरे तीन शीश खा लिये हैं । सत्यपुरुष, आप मुझ पर
दया कीजिये ।
कबीर
साहब बोले - काल-निरंजन का ऐसा क्रूर चरित्र जानकर
सत्यपुरुष ने उसे शाप दिया कि वह प्रतिदिन लाख जीवों को खायेगा, और सवा लाख का विस्तार करेगा ।
फ़िर
सत्यपुरुष ने ऐसा भी विचार किया कि इस कालपुरुष को मिटा ही डालें क्योंकि अन्यायी
और क्रूर काल-निरंजन बहुत ही कठोर और भयंकर है । यह सभी जीवों का जीवन बहुत दुखी
कर देगा ।
लेकिन
अब वह मिटाने से भी नहीं मिट सकता था, क्योंकि
एक ही नाल से वे सब सोलह सुत उत्पन्न हुये थे अतः एक को मिटाने से सभी मिट जायेंगे
। और मैंने सबको अलग लोकदीप देकर जो रहने का वचन दिया है वह डांवाडोल हो जायेगा, और मेरी ये सब रचना भी समाप्त हो जायेगी । अतः इसको मारना ठीक नहीं है ।
सत्यपुरुष
ने विचार किया कि कालपुरुष को मारने से उनका वचन भंग हो जायेगा ।
अतः
अपने वचन का पालन करते हुये उसे न मारकर यह कहता हूँ कि अब वह कभी हमारा दर्शन
नहीं पायेगा ।
यह
कहते हुये सत्यपुरुष ने योगजीत को बुलवाया, और सब हाल कहा कि किस तरह काल-निरंजन ने अष्टांगी कन्या को निगल लिया, और कूर्म के तीन शीश खा लिये ।
उन्होंने
कहा - योगजीत, तुम शीघ्र
मानसरोवर दीप जाओ, और वहाँ से निरंजन को मारकर निकाल दो । वह
मानसरोवर में न रहने पाये, और हमारे देश सत्यलोक में कभी न
आने पाये ।
निरंजन
के पेट में अष्टांगी नारी है । उससे कहो कि वह मेरे वचनों का संभाल कर पालन करे । निरंजन
जाकर उसी देश में रहे, जो मैंने पहले उसे दिये हैं अर्थात वह
स्वर्गलोक, मृत्युलोक, और पाताल पर
अपना राज्य करे । वह अष्टांगी नारी निरंजन का पेट फ़ाङकर बाहर निकल आये जिससे पेट
फ़टने से वह अपने कर्मों का फ़ल पाये । निरंजन से निर्णय करके कह दो कि वह
अष्टांगी नारी ही अब तुम्हारी स्त्री होगी ।
योगजीत
सत्यपुरुष को प्रणाम करके मानसरोवर दीप आये ।
काल-निरंजन
उन्हें वहाँ आया देखकर भयंकर रूप हो गया और बोला - तुम कौन
हो, और किसने तुम्हें यहाँ भेजा है?
योगजीत
ने कहा - अरे निरंजन, तुम नारी को
ही खा गये अतः सत्यपुरुष ने मुझे आज्ञा दी कि तुम्हें शीघ्र ही यहाँ से निकालूँ ।
योगजीत
ने निरंजन के पेट में समायी हुयी अष्टांगी से कहा - अष्टांगी, तुम वहाँ क्यों रहती हो । तुम सत्यपुरुष के तेज का सुमिरन करो, और पेट फ़ाङकर बाहर आ जाओ ।
योगजीत
की बात सुनकर निरंजन का ह्रदय क्रोध से जलने लगा, और वह योगजीत से भिङ गया ।
योगजीत
ने सत्यपुरुष का ध्यान किया, तो सत्यपुरुष ने आज्ञा
दी कि वह निरंजन के माथे के बीच में जोर से घूंसा मारे ।
योगजीत
ने ऐसा ही किया ।
फ़िर योगजीत ने निरंजन की बाँह पकङ कर उसे उठाकर दूर
फ़ेंक दिया, तो वह सत्यलोक के मानसरोवर दीप से अलग जाकर दूर
गिर पङा । सत्यपुरुष के डर से वह डरता हुआ सँभल सँभलकर उठा । फ़िर अष्टांगी कन्या
निरंजन के पेट से निकली वह काल-निरंजन से बहुत भयभीत थी ।
वह
सोचने लगी कि अब मैं वह देश न देख सकूंगी मैं न जाने किस प्रकार यहाँ आकर गिर पङी
यह कौन बताये । वह निरंजन से बहुत डरी हुयी थी, और सकपका
कर इधर उधर देखती हुयी निरंजन को शीश नवा रही थी ।
तब
निरंजन बोला - हे आदिकुमारी सुनो, अब
तुम मेरे डर से मत डरो । सत्यपुरुष ने तुम्हें मेरे ‘काम’
के लिये रचा है । हम तुम दोनों एकमति होकर सृष्टि रचना करें । मैं
पुरुष हूँ, और तुम मेरी स्त्री हो अतः तुम मेरी यह बात मान
लो ।
अष्टांगी
बोली - तुम यह कैसी वाणी बोलते हो, मैं तो तुम्हें बङा भाई मानती हूँ । इस प्रकार जानते हुये भी तुम मुझसे
ऐसी बातें मत करो । जब से तुमने मुझे पेट में डाल लिया था,
और उससे उत्पन्न होने पर अब तो मैं तुम्हारी पुत्री भी हो गयी हूँ । बङे भाई का
रिश्ता तो पहले से ही था, अब तो तुम मेरे पिता भी हो गये हो
। अब तुम मुझे साफ़ दृष्टि से देखो, नहीं तो तुमसे यह पाप हो
जायेगा अतः मुझे विषयवासना की दृष्टि से मत देखो ।
निरंजन
बोला - भवानी सुनो, मैं तुम्हें
सत्य बताकर अपनी पहचान कराता हूँ । पाप, पुण्य के डर से मैं
नहीं डरता क्योंकि पाप, पुण्य का मैं ही तो कर्ता (कराने वाला) हूँ । पाप, पुण्य
मुझसे ही होंगे, और मेरा हिसाब कोई नहीं लेगा । पाप, पुण्य को मैं ही फ़ैलाऊँगा जो उसमें फ़ँस जायेगा, वही
मेरा होगा । अतः तुम मेरी इस सीख को मानो । सत्यपुरुष ने मुझे कह, समझा कर तुझे दिया है अतः तुम मेरा कहना मानो ।
निरंजन
की ऐसी बातें सुनकर अष्टांगी हंसी, और
दोनों एकमति होकर एक दूसरे के रंग में रंग गये । अष्टांगी मीठी वाणी से रहस्यमय
वचन बोली, और फ़िर उस नीच बुद्धि स्त्री ने विषयभोग की इच्छा
प्रकट की । उसके रति विषयक रहस्यमय वचन सुनकर निरंजन बहुत प्रसन्न हुआ, और उसके भी मन में विषयभोग की इच्छा जाग उठी ।
निरंजन
और अष्टांगी दोनों परस्पर रतिक्रिया में लग गये । तब कहीं चैतन्य सृष्टि का विशेष
आरम्भ हुआ ।
धर्मदास, तुम आदि-उत्पत्ति का यह भेद सुनो जिसे भ्रमवश कोई
नहीं जानता । उन दोनों ने तीन बार रतिक्रिया की जिससे ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हुये । उनमें ब्रह्मा सबसे बङे, मंझले
विष्णु और सबसे छोटे शंकर थे । इस प्रकार अष्टांगी और निरंजन का रति प्रसंग हुआ । उन
दोनों ने एकमति होकर भोगविलास किया तब उससे आदिउत्पत्ति का प्रकाश हुआ ।
10 टिप्पणियां:
क्या ये सत्य है
Ha yahi sataya hai
ये असत्य है
मानो तो ये सत्य वचन है । ना मानो तो असत्य
ऐसा ही है। कबीर सागर में प्रमाण है।
संत रामपाल जी महाराज ने इसका प्रमाण वेदों व पुराणों में प्रमाण सहित दिखाया है। कोई भी संत रामपाल जी के सत्संग वीडियो यूट्यूब पर देख सकता है।
अरे बाप रे ये सब क्या है
कबीर ज्ञान {संत रामपाल जी महाराज की जय हो}
निरंजन के पिता कौन हैं
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हाँ ये सत्य है।
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