रमैनी 55
गए राम औ गए लछमना, संगन गै सीता अस धना ।
जात कौरवै लागु न बारा, गये भोज जिन्ह साजल धारा?
गए पंडव कुन्ती अस रानी, गए सहदेव जिन मति बुधि ठानी
।
सर्ब सोने के लंक उठाई, चलब बार कछु संग न लाई ।
कुरिया जासु अंतरिछ छाई, सो हरिचंद्र देखि नहिं जाई
।
मूरख मानुष बहुत संजोई, अपने मरे और लग रोई?
ई न जान अपनौ मरि जैबे, टका दस बिढ़े ओर लै खैबै?
अपनी अपनी करि गए, लागि न काहु के साथ ।
अपनी करि गए रावणा, अपनी दसरथ नाथ ।
रमैनी 56
दिन दिन जरे जननि के पाऊ, गडे जाए न उमगै काऊ ।
कंधा देई मसखरी करई, कहुधौ कवनि भांति निस्तरई
।
अकरम करै करम को धावै, पढि गुनि वेद जगत समुझावै?
छंछे परे अकारथ जाई, कहहिं कबीर चित चेतहु भाई
।
रमैनी 57
क्रितिया सूत्र लोक एक अहई, लाख पचास कि आइस कहई?
विद्या वेद पढै पुनि सोई, बचन कहत परतछै होई ।
पैठि बात विद्या के पेटा, बाहु के भर्म भया संकेता
।
खग खोजन के तुम परे, पाछे अगम अपार ।
बिन परिचय कस जानि हौ, झूठा है हंकार ।
रमैनी 58
तै सुत मानु हमारी सेवा, तो कहँ राज देउँ हो देवा
।
अगम दृगम गढ देउँ छोडाई, औरो बात सुनहु कछु आई ।
उत्पति परलय देउँ देखाई, करहु राज सुख बिलसहु जाई
।
एकौ बार न होय है बांको, बहुरि जन्म नहिं होइ हैं
ताको ।
जाय पाप सुख होवे घाना, निश्चै बचन कबीर के माना
।
साधु संत तेई जना, जिन मानल बचन हमार ।
आदि अंत उत्पत्ति प्रलय, देखहु दृष्टि पसार ।
1 टिप्पणी:
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
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